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Sunday 3 January 2016

बेलगाम उड़ते हैं मिरे ख़्वाब मुझको छोड़ दो...

बेलगाम उड़ते हैं मिरे ख़्वाब मुझको छोड़ दो
डाल दो जंज़ीर पैरों मैं या पायल तोड़ दो
वक़्त कि रफ़्तार है ये किस क़दर रुक पायेगी
उड़ रहे पंछी के तो ये पर नहीं जो तोड़ दो
हम जली बस्ती के मकानों का हाल पूछ लें
ग़म ये महलों के नहीं जो चाहे जैसे मोड़ दो
हम लिए फिरते हैं दिल का फ़ूल हाथों मैं यूँ ही
चाहो गुलदानों मैं ऱख लो या मसल मरोड़ दो
नक़्श-ऐ-पा तक मेरी बातों मैं बड़े हैं हाशिए
रोक लो बातों का ये दरिया मुझे ग़र तोड़ दो
बुजदिलों से बायत करते हो सितमगर क्यों सभी
ज़िरह करो तूफ़ां तो बड़ी बात करना छोड़ दो
है धरा का सब्र क्यूँ अजमाइशों से हम डरें
बाँध दो नदियों को या नहरों के रस्ते मोड़ दो
भूल ना पाओगे ‘शरर’ लफ़्ज मेरे आख़री
वक़्त के संग तुम चलो या वक़्त पीछे छोड़ दो

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